इस तमन्ना के साथ की यह मुबारक महीना पूरी दुन्य के लिए खैर व बरकत का वसीला हो
रोज़ेका फ़र्ज़ होना क़ुरआने करीम की सूरह बक़रा की आयत नंबर 183 से साबित होता है जिसमें अल्लाह ताला इस तरह इरशाद फरमाते हैं "ऐ ईमान वालों! रोज़े को तुम पर फ़र्ज़ किया गया है जैसे कि तुमसे पहली उम्मतों पर फ़र्ज़ किया गया था ताकि तुम अल्लाह से डरते रहो"।
रोज़े का मतलब यह है कि सुबह -ए-काज़िब से लेकर सूरज गुरूब होने तक खाने पीने जिंसी ताल्लुक जैसे दुनियावी आराम ओ राहत से परहेज़ किया जाए। और हर तरह की बुराइयों से बचा जाए। रोज़ा स्वास्थ्य और सामाजिक रूप से हमरी जिंदगी में सकारात्मक भूमिका निभाने के साथ-साथ हमें अपने रब से निकटता जैसे रोहानी फल भी प्रदान करते हैं।
रोज़ा सिर्फ इस्लामी दुनिया की ही खास इबादत नहीं है बल्कि तमाम धर्मों में रोज़ा मौजूद है और यह बात कुरान-ए-करीम की आयत से साबित होती है कि जिसमें अल्लाह ताला फरमाते हैं कि “ऐ ईमान वालों! तुम पर रोज़ा फ़र्ज़ किया गया है जैसा कि तुमसे पहली उम्मतोंपर फ़र्ज़ किया गया था ताकि तुम तक़वा इख्तेयार करो”।
यानी इस बात में कोई शुबहा नहीं है की इंसानी तारिख की शुरुआत से लेकर अब तक तमाम पैग़म्बर रोज़ा रखते रहे हैं ज़मीन पर उतरने वाले हर धर्म में रोज़ा मौजूद रहा है ईसाईयत में वक़्त के साथ-साथ रोज़े की शक्ल समय और उसूलों ज़वाबित में तब्दीली आने के बावजूद रोज़ा कलीसाके 3 अहकामात में से एक है। इसी तरह यहोदियों में इसे कैपूर का दिन कहा जाता है और तौरेत के अनुसार भी कुछ दिनों में रोज़ा रखा जाता है।
सिर्फ आसमानी धर्मो ही नहीं बल्कि हिंदू मत, ताऊ मतऔर जैनमत जैसे धर्मों में भी रोज़े की जगह मौजूद है। यानी इस बात का विश्लेषण का बाद पता चला की रूहानी और जिस्मानी सेहत के लिए रोजा रखा जाता है।
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